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बोने ही होंगे कुछ ख़्वाब / नीता पोरवाल

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सिरहाने मुँह दिए रात की पलके
अभी भी उनींदी सी
खारे पानी के ठहरने से
चिपचिपी कुछ सख्त सी कोरें
आज अंधियारे पाख की
विष बेल सी डरावनी चौदस है ना?

हर ओर सन्नाटे
कुछ गुपचुप सी परछाइयाँ
ना थपकी देती लोरियाँ
न कोई लुभावना मंज़र
न गुदगुदाती यादें

बस दरख्तों के घने
जर्द स्याह साये और
ऊंघता ..रूखा ..चटखता
रह रह कर कर्कश आवाज़ निकालता समय
कभी-कभी
उधार की टिमटिमाती
रंग बिरंगी रौशनियाँ

हवा से बतियाती
पत्तियों की फुसफुसाहटें भी
सुन्न कानो तक
बमुश्किल ही पहुँच पाती हैं

कुछ गर्म बूंदे
आज ओस बन
सख्त मुंडेरो से टपक पड़ी हैं!
कल अमावस के बाद चाँद भी दिखेगा

क्या पता वह भी बादलो की ओट ले
मुझे अँधेरे की ओढनी फिर ओढा दे

अपनी राहें... अपनी खुशियाँ
अपने ख़्वाबों की तामीर भी ख़ुद ही करना!
पर कब तक...?

पर इससे पहले कि
भोर का चुभता उजाला फैले
बोने ही होंगे कुछ ख़्वाब
मुझे अपने लिए
हाँ, अपने लिए