भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गुज़रते हैं हम जिस गली जिस नगर से / पूजा श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:44, 21 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पूजा श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गुज़रते हैं हम जिस गली जिस नगर से
कई होंगे तूफ़ान तारी उधर से
 
चलो बांध लें अब किनारे पे कश्ती
कहाँ तक लड़ेंगे ग़मों के भंवर से

न तुलसी न आँगन में है कोई दीपक
मेरा गांव आगे है अब तो शहर से

ये महताब मैं और तनहाई छत पर
तुम्हें याद करते रहे रात भर से

तुम्हारे लिए मेरा पल्लू है आफत
कहो बांध लूं ये मुसीबत कमर से

गुजरता है जब डाकिया बस मेरा दिल
बड़ा बैठा जाता है अंजान डर से

महकने लगी जाफ़रानी सी रातें
ये तकिया ये चादर रहे तरबतर से

है ईमानदारी न जाने कहाँ अब
मगर साथ मेरे ही निकली थी घर से

लिखो पीठ पर ऊँगलियों से इबारत
 तसल्ली नहीं मुझको आगोश भर से