भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमारी गर्दिशों के दौर दोरे कम नहीं होते / बलबीर सिंह 'रंग'

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:45, 23 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बलबीर सिंह 'रंग' |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमारी गर्दिशों के दौर दोरे कम नहीं होते,
कोई अपना नहीं होता किसी के हम नहीं होते।

उन्हें इंसान कहलाने का कोई हक़ नहीं होता,
जो इंसान हो के इन्सा के शरीके़ ग़म नहीं होते।

फरिश्तों और शैतानों की क्या पहचान हो पाती,
अगर दुनिया में पैदा हज़रते आदम नहीं होते।

बनाना चाहते हैं जो निज़ामे ज़िन्दगानी को,
यह सच है उनके हाथों में कोई परचम नहीं होते।

किसी के इश्क़ में अये ‘रंग’ क्यों नाहक परेशां हो,
जनावे मन, ये पत्थर-दिल सनम हैं नम नहीं होते।