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सौ सौ विभ्रम / यतींद्रनाथ राही

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उलझे लक्ष्य
कटीले पथ हैं
एक ज़िन्दगी
सौ सौ विभ्रम

इतनी धूल जमी दर्पण पर
सारी उमर
झाड़ते बीती
देख न पाए एक झलक भर
छवि
जीवन धन की मनचीती
जितनी बार गए पनघट पर
लेकर लौटे खाली गागर
दूर-दूर तक रहे उफनते
जलती हुई रेत के सागर
भरी मुट्ठियाँ
टूटे सपने
अधर काँपते
पलके पुरनम।
धरते रहे दीप पौढ़ी पर
अन्तःपुर
रह गए अँधेरे
मिले देवता भी तो ऐसे
चेहरों पर ओढ़े कुछ चेहरे
मैली सभी चादरें साधो
किसे ओढ़ लें
किसे बिछाएँ
महाकुंभ की महाभीड़ में
बोलो!
डुबकी कहाँ लगाएँ
निकला नहीं भोर का सूरज
होते रहे क्षितिज
कुछ अरुणिम।

नीलकंठ हम नहीं
नियति में लिखा
हलाहल ही पीना है
कटे पंख
पिजरे के पाँखी
जीना भी, कैसा जीना है?
मन करता है
गगन चीरकर
ऐसे दूर देश उड़ जाएँ
महाषून्य की महागन्ध में
पँखुरी पँखुरी
हो झर जाएँ
बाँहों में आकाश बाँधलें
साँसों में
साँसो के सरगम।
एक ज़िन्दगी।