भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम भी तुम भी और पुराने रस्ते ढूँढे शहरों को / शक्ति बारैठ

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:39, 6 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शक्ति बारैठ |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं अकेला ही चला था,
तुम्हारी और, तुम्हारा साथ लेकर
दौर गुजरे, दिन गुजरे और
हाथ छुड़ा बैठा,
तुम उस और निकले,
मैं इस और,
मालूम था वहाँ कुछ नहीं
तुम भी नहीं, सिर्फ सफ़र था
और इधर
ऊँचे दरख्तों के निचे से गुजरने वाले तंग रस्ते
नदियों के भटकाव खाते किनारे
समन्दरों में हर लहर के साथ डूबती रेत
बंद पड़े रेलों के इंजन
और उनकी छाँव में बरसों से भीगती, सूखती
और डूबती पटरियाँ,
तंगहाल शहर, उजड़ते, बनते, बिखरते गाँव,
हँसी आती है,
हाथ तुमने छुड़ाया,
भटका में
समय के पार पहुँच गया,
देखों, वहाँ, तुम्हारी दुनिया में अब कुछ भी नहीं
तुम भी नहीं,
मैं भी नहीं
और वो,
वो भी नहीं।