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कब तक प्रार्थना / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

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उमड़-घुमड़कर बहना ही चाहता है
टूटना ही चाहता है दरिया, आँसुओं का
कैसे अनदेखे करूँ
मदद के लिए उठे हाथ
कैसे बना रहूँ पत्थरदिल
लौट जाती हैं टकराकर सदाएँ
बाधा है समाज
दीवार है कानून
न मिआ सकते हैं
न तोड़ सकते हैं
कमजोर हाथ थोड़ा-सा हिला सकते हैं
उतना हिलाना उठाता नहीं तूफान
कि बना दे राह कठिनाई में
दीदार हो ममता का
छलककर रह जाता है हर बार दरिया
टूटेगा तो बाढ़ आयेगी
विनाश साथ लायेगी
जितनी देर सह लेता है अन्याय कोई
जितनी देर बर्दाश्त कर लेता है अत्याचार कोई
उतनी देर तक ही
बचा हुआ है ये समाज
बचा हुआ है वो खुद
परिवर्तन से
लौट जाते हैं फूल बीज में
बीज कहीं गहरे, धरती में
लौट जाती हैं ऋतुएँ
नरक-सा सन्नाटा
पसर जाता है चारांे ओर
बस अपना ही हृदय निचोड़ता है
खून अपना ही पीता है
रोशनी एक तीलीभर भी
अंधकार मिटा देती है
पर कौन जलायेगा?
किसके पास है आग
कि बाँटता फिरे द्वार-द्वार
मसीहाओं ने छोड़ दिया है आना
चमत्कार नहीं होते अब
खो गया है विश्वास कि इंसान है
बजा चुके बहुत घंटियाँ,
कर चुके बहुत आरती,
फल, फूल, चँवर नाकाफी हैं
उन कानों तक पहुँचने के लिए
इसलिए बमों का धमाका है
पहनाओ गोलियों, हथगोलों के हार
बिछाओ बारूदी सुरंगों का गलीचा लाल
जिंदाबाद, तुम्हारे चीथड़ों की,
जिंदाबाद, तुम्हारी थेगलियों की,
तुम्हारे मुँह से झरतीं,
छिपकलियों, मेंढकों की
कुछ भी तो लपका नहीं जा सकता
कोई दिलासा नहीं,
कोई आशा नहीं
बस खड़ा है तुम्हारे सामने
उम्मीद में सिर झुकाये
हाथों को माथे पर लगाये
कि कर दोगे अब तो मुक्त
इस दासता से,
कर दोगे मुक्त इस सजा से,
इस मोह-माया से,
इस गलीज जीवन से,
पर तुम तो बैठे हो
पत्थर की मूरत जैसे
समय आयेगा तो जागोगे
समय आयेगा तो उच्चारोगे
समय आयेगा तो होगा वो मुक्त
गिरेगा पककर
समय आयेगा तो सड़ेगा
फिर इस प्रार्थना का क्या?
क्यों हर बार
ये टकराकर लौट आती है?
प्रार्थी को उसकी ही प्रतिध्वनि सुनाती है
आखिर कब तक चलती रहेगी प्रार्थना
या हो जायेंगे बुत
योंही तुम्हारे द्वार खड़े-खड़े।