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गत्ते की मछलियाँ / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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पीछा करते मृत्यु का
पहुँच गया उसके द्वार पर
हर क्षण
कभी आगे, कभी पीछे
पहुँच गये मातृभूमि से दूर
बैठे-बैठे
कुछ क्षण और
जीने की चाह में
पर नहीं कर पाया
स्पर्श, प्याले का
इतनी-सी दूरी भी
हो गयी अनंत
थम गया स्तब्ध-सा समय
अर्धांगिनी थरथराती रही
सुख के प्याले में
क्या बचा था?
बस एक चीख
एक आँसू
अटका कोर में
फटा जा रहा था हृदय
गत्ते की मछली
सूख रही धूप में
फड़फड़ाती हवा में
कहाँ गयी चेतना
गीला धुआँ जला रहा आँखों को
क्या सचमुच रो रहे थे
दुःख से, मछुआरे
क्या भूनेंगे, तलेंगे
आखिर कब तक?
भूख तो काट डालेगी
सभी रिश्ते
चबायेंगे, गत्ते को ही
होठों पर जीभ फेरते हुए
क्या नमक ज्यादा हो गया?
यादों पर भी
जमेंगे रेत के टीले
बदलेंगे पहाड़ों में
कभी-कभी एकांत में बैठ
जिंदगी की निरर्थकता पर मुसकरायेंगे
फिर उन्हीं जूतों को पहनेंगे
फिर करेंगे पीछा मृत्यु का
उसके द्वार तक
इसी तरह
गत्ते की मछलियाँ
सौंपेंगी अपनी विरासत
अगली पीढ़ियों को
बदलेंगे मछुआरे को
कभी यहाँ, कभी वहाँ
डालेंगे काँटा
फंेकेंगे जाल
कुछ फँसेंगी
कुछ बच जायेंगी?
पर कब तक?
समय तो बीत रहा
ना थमेगा
ना धीमा होगा
तेल जल रहा दीपक में
अँधेरी रात में
एक ही सहारा, रोशनी का
लपकती है गत्ते की मछलियाँ
और लो
वो चमका भाला चांदनी रात में
चीर दिया आर-पार
आँखों में चमका वहशीपन
कितना आनंदित करता
शिकार और शिकारी
दायें, बायें
डाल-डाल पात-पात
क्या छुप पायेगी कहीं
गत्ते की मछलियाँ
बच सके जहाँ
वो गलने से
सूखने से
जलने से
लंबी बंसी की डोर
उड़ती पतंग की तरह
पड़ती चाबुक-सी
ढूँढ ही लेती है
खोहांे-कंदराओं में
पेड़ों पर, पहाड़ों में
सुरक्षित से सुरक्षित कोना भी
दूर नहीं पहुँच से
बचाकर रखो बस
एक चीख
एक आँसू
गीला करो होठों को
और करते रहो पीछा
मृत्यु का
उसके द्वार तक।