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मेरे नाम की ग़ैर भी लगे माला जपने, / विजय 'अरुण'

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मेरे नाम की ग़ैर भी लगे माला जपने,
मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं
जो मेरे अपने हैं वे तो हैं हीअपने,
मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं।

मुझे विरह की रात कभी भी नहीं सताती,
मैं जागूँ तो उनका ध्यान करूँ मैं
और अगर सो जाऊँ देखूं उन्ही के सपने,
मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं।

भारत देश विशाल, हो जब कश्मीर में सर्दी,
तो मैं कोच्चि में जा कर करूँ बसेरा
फिर कश्मीर, लगे जब कोच्चि गर्मी से तपने,
मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं।

हो अरविन्द केजरीवाल कि या फिर वे सब,
राजनीति के दल विशेष भारत के
जनता के बित्ते से दोनों लगे हैं नपने,
मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं।

 'अरुण' यह मेरे उद्यम का परिणाम है कि अब,
कवि सम्मलेन वाले मुझे बुलाते
पत्र पत्रिकाओं में भी अब लगा हूँ छपने,
मेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं।