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हवा के दोश पे किस गुलबदन की ख़ुशबू है / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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हवा के दोश पे किस गुलबदन की ख़ुशबू है
गुमान होता है सारे चमन की ख़ुशबू है
मिरे वजूद को मख्मूर कर दिया इसने
बड़ी अनोखी तिरे पैरहन की ख़ुशबू है
करीब पा के तुझे झूमता है मन मेरा
जो तेरे तन की है वो मेरे मन की ख़ुशबू है
बला की शोख़ है सूरज की एक-एक किरन
पयामे ज़िंदगी हर इक किरन की ख़ुशबू है
गले मिली कभी उर्दू जहाँ पे हिंदी से
मिरे मिज़ाज में उस अंजुमन की ख़ुशबू है
ये बात पूछे तो मेहनतकशों जा के कोई
कि रात चीज़ है क्या, क्या थकन कि ख़ुशबू है
मिलेगी मंज़िले- मक़सूद एक दिन मुझको
कि मेरे अज़्मो-अमल में लगन कि ख़ुशबू है
बहुत संभाल के रखा है इनको मैंने 'रक़ीब'
एक एक लफ़्ज़ में ख़त के वतन की ख़ुशबू है