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जीवन का दीप / रामावतार यादव 'शक्र'

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अपने मानस के मन्दिर में जीवन का दीप जलाता मैं।

1.

सपनों को लेकर बड़ा हुआ,
सपनों को लेकर जीता मैं।
क्या कहूँ कि किसकी इच्छा से
नित घोर हलाहल पीता मैं।
खोकर सारी सुधि सोच रहा-
”मैं कौन कहाँ से आया हूँ“।
अंतस में कसक-कोष अपारे,
फिर भी हूँ अब तक रीता मैं।

आँसू के पावन फूलों से पूजा का थाल सजाता मैं।
अपने मानस के मन्दिर में जीवन का दीप जलाता मैं।