भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रात का तीसरा पहर / राहुल कुमार 'देवव्रत'

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:48, 3 जुलाई 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई किसी का रास्ता अब भी तकता है ?
जो बैठते हो सर्द रात पुरानी बैठक में
क्या अब भी कोई चांद खिड़की से तुझे झांकता है ?

पहाड़ काटकर जो सड़कें बनाई थी तुमने
जडों को खोदकर जो पेड़ गिरा डाले थे
याद करके उन्हें अब भी उनका बच्चा रोता है ?

वो कारवां , वो सब सामान बदल गए होंगे
बदलती रात है , क़ौलोक़सम भी ख़त्म हुए
पुरानी चीज भला कब कोई ढ़ोता है ?

लकड़ी का बक्सा जो कभी बिस्तर था हमारा
बदलते वक्त में घर से निकल गया होगा
पुरानी चादरों को जोड़कर सिला दोहर
फटेहाल पड़ा होगा ....कि वह भी बदल गया होगा ?

कड़ी धूप में नुक्कड़ का पेड़ याद भी है ?
शाख बदरंग हैं , जिसके तने पायदार हैं
शहर के लोग ही नहीं जानते हमारे किस्से
किराये के कुछ मकान भी राजदार हैं

नई सुबह नये लोग मिले हैं सफर शुरू तो करो
मगर सुनो सबों के पास यादेअसबाब पड़ा होता है

याद है.... ?
कितनी बार तरोताजा हुए हैं पहाड़ पर रुककर
चोटी पर बने उस फूस के छप्पर में
क्या अब भी हवा सुर कोई पिरोता है ?