भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाँस के वन / भावना कुँअर

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:13, 11 जुलाई 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाँस के वन
बहुत ही सघन।
खड़े हैं कैसे
वो सीधे,ऊँचे तन।
इनमें भरा
शिष्टाचार का रंग।
बहुत बड़े
अनुशासित हैं वो
पिए हों मानों
भाईचारे की भंग।
आतुर हुए
अब छूने गगन
बरबस ही
मोह लेते,ये भोले
हर मानव मन।