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गहगह साज समाज-जुत, अति सोभा उफनात / रसिक बिहारी

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गहगह साज समाज-जुत, अति सोभा उफनात।
चलिबे को मिलि सेज-सुख, मंगल-मुदमय-रात॥
रही पालती पहकि लहै, सेवत कोटि अभंग।
करो पदन पजुहर सिलि, सब रजनी रस-रंग॥
जले दोउ मिलि रसमसे, मैन रसमसे नैन।
प्रेम रसमसी ललित गहि, रंग रसमसी रैन॥
 'रसिकबिहारी' सुख सदन, आए रस सरसात।
प्रेम बहुत मोरी निसा, ह्वै आयो परभात॥