भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

फूलों की जड़ों पर करुणा की झड़ी / प्रभात कुमार सिन्हा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:04, 4 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभात सरसिज |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह विराग का फूल खिल आया है सीने में
जिसमें समस्त राग तिरोहित हो रहे हैं
अपूर्व प्रेम की जड़ें बलवान होती जा रही हैं
रह-रह उठता रहता है अन्तर्नाद
स्नायु-समूह सितार के तारों की तरह
झंकृत होते रहते हैं
बार-बार रक्त-कोष उष्णतर होता जाता है
आज आषाढ़ के बादल छाये हैं
दिल में कौंध उठती हैं बिजलियाँ
शब्द घुमड़ने लगते हैं
बारिश की झड़ी से
और भी उत्तप्त हो उठते हैं प्रतिरोध के स्वर
सीने में उठी लहक वस्त्रों को चीरकर
बाहर आना चाहती है
बारिश का मौसम कृषकों-मजूरों के लिये
शक्ति अर्जित करने के दिवस हैं
जबकि श्रीमन्तों-तख़्तनवीसों की
रक्त-नलिकाओं में बर्फ़ घोल देने के उपयुक्त क्षण हैं
राग-विमुक्त इस विराग के फूलों की जड़ें
करुणा के जल से सिंचित हो रही हैं
बाहों की पेशियों में तेजी से
उष्ण रक्त प्रवाहित होने लगा है
रीढ़ अकड़ कर तख़्त से ज़्यादा सख़्त हो रही है।