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दोहे-1 / दरवेश भारती

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इस अद्भुत संसार में, कर जितने उपकार।
पायेगा अपकार ही, उतने बारम्बार।।

वह घर स्वर्ग-समान है,जहाँ नहीं है क्लेश।
पुजते हैं माता-पिता, जैसे हों देवेश।।

काम बिगड़ता देखकर, ख़ूब जताया रोष।
आत्मनिरीक्षण जब किया, पाया ख़ुद में दोष।।

घर-घर रावण बस रहे, राम करें वनवास।
स्नेह,दया,सुख,प्रेम की, किससे हो अब आस।।

हर नगरी, हर गाँव में, पनप रहे अवतार।
खेतों में जैसे उगें, नाहक़ खर, पतवार।।

कौन किसी का है सखा, कौन किसी का मीत।
अर्थ-तन्त्र में अर्थ से, देखी सबकी प्रीत।।

मिले उन्हें अक्षय विजय, जो हों नम्र, विनीत।
दम्भी दुर्योधन-सरिस, कभी न पाते जीत।।

कौन किसी का शत्रु है, कौन किसी का मित्र।
हुए उसी के संग सब, जिसका साधु चरित्र।।

वर्षों जीवन जी लिया, आज हुआ महसूस।
काम न कोई बन सके, बिन परिचय, बिन घूस।।

दिन-प्रतिदिन है बन रही, राजनीति व्यवसाय।
सेवा-भाव विलुप्त है, लक्ष्य मात्र है आय।।