भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गन्तव्य / भारतरत्न भार्गव

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:47, 6 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भारतरत्न भार्गव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपरिचित दुखों का हाथ थामे
कितनी दूर तक चलता चला आया
नहीं जानता था
इनका और मेरा
गन्तव्य कितना अलग

लिया था सहारा सुविधा के लिए
अपने बियाबान को देने नया अर्थ
कृतज्ञ हूँ इन्होंने दिया मुझे धुआँ
उजागर किया
दृश्य के अदृश्य का सत्य
चकित हूँ इन्होंने रखी अँगुली मेरी
छिन्न-खिन्न आइने के टुकड़ों पर
थमा दी लगभग फट गई कोथली

पुरखों की कोथली में
छिपी थी आँखें
आँखों में तहाए थे सूखे आँसू
आँसुओं के गर्भ में था समन्दर
समन्दर की हथेलियों में ज्वार
ज्वार के ओठों पर प्यास
       मेरी परिचिता

अब इस प्यास के सहारे
जाना ही होगा
ले जाए जिधर
भूल कर अपना गन्तव्य !