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बार-बार अपने को झकझोरकर / दिनेश्वर प्रसाद

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बार-बार अपने को झकझोरकर
मैंने देखा : मैं सावयव हूँ
मैंने देह का ताप लिया
उँगलियों में सुई चुभोकर
मैंने पाया : मैं जीवित हूँ
और फ़र्श पर गिरा ख़ून
मुझे ताज़ा लगा

और जब
तब भी विश्वास नहीं हुआ
मैं अपने मित्र के यहाँ गया
और उससे अपनी देह सूँघने को कहा
कि कहीं इससे शव की गन्ध तो नहीं आ रही है

लेकिन उसके दिलाए विश्वास का भी विश्वास
नहीं हुआ
लगा : कहीं वह भी तो
शव नहीं हो गया है !

कहीं पतझर के ये सूने पेड़
सूखती घास ढँकी मूँगिया पहाड़ी
सूरज की आँखों में धूल झोंकती साँझ की हवाएँ
और सड़क पर चलते सप्रश्न लोग

सब...सब...
सभी कौन, सभी क्या, सभी कैसे
नीले शीशे के इस बड़े मुर्दाघर में बन्द
प्रेतबिम्ब तो नहीं हैं ?

(10 मार्च 1966)