भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुस्कुरा कर भोर भर दो / सीमा अग्रवाल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:52, 4 अक्टूबर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सीमा अग्रवाल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ढल रहीं हैं कल्पनायें
साँझ जैसी
तुम तनिक-सा मुस्कुरा कर
भोर भर दो

वीतरागी सुर बजाती
बाँसुरी में
झिलमिलाती चाँदनी भर
आँजुरी में

फूँक दो कुछ कामनायुत
मंत्र, अक्षर-
मेघ, सावन, मोर कर दो

क्षितिज पर कुछ डूबता-सा
दिख रहा है
खुद हि खुद से ऊबता-सा
दिख रहा है

मौन जपते व्योम के
ऊँघे सहन में
कलरवों का शोर धर दो