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ज़रा और भी कुछ निखर जाऊँ मैं / गोविन्द राकेश

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ज़रा और भी कुछ निखर जाऊँ मैं
सभी के दिलों में उतर जाऊँ मैं

जिधर खार ही फूल-सा लग रहा
उसी रास्ते से गुज़र जाऊँ मैं

है शह्र हर तरफ़ पत्थरों-सा यहाँ
तभी सोचता हॅू किघर जाऊँ मैं

मिला देवता मंदिरों में नहीं
इबादत करूँ या कि घर जाऊँ मैं

मेरे झूठ ने चोट दी है उसे
ज़रा बोलकर सच सुधर जाऊँ मैं