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उम्मीद पुनर्जागरण की / शशांक मिश्रा 'सफ़ीर'

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जिसे अबतक टाला गया,
वही तो होना था।
जिस बात पर हंस दिया,
दरअसल रोना था।
लोग जो अचानक बहरे होने लगे,
और गूंगे भी।
अब निचुड़ने लगे हैं टूट जाने की हद तक।
मुट्ठीभर जीवन के बदले,
उतावले हैं अधिक मरने के लिए।
एक क्षण तृप्ति के बदले,
तैयार हैं जला लेने को कण्ठ।

क्यों न प्रश्नचिह्न लगे तुमपर,
जो पसर भर भी ना उतार सके जमीन पर,
आसमान भर सोचने के बदले।
जो नहीं दे सके उन पर्वतों के ढहने का हिसाब,
जिनसे टकरा कर हवाओं को मानसून बनना था।

क्यों तुम्हारे भय से नदियों ने स्वीकार लिया
सिकुड़ जाना।
क्यों वृक्षों ने त्याग दिए अपने वितान।

कहो, क्यों ना लिखा जाए तुम्हारे खिलाफ?
क्यों न कामना की जाए तुम्हारे पतन की।

तुमने नहीं छोड़ा कोई उपनिवेश,
जहाँ से उम्मीद हो पुनर्जागरण की।