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क्या भला मुझ को परखने का नतीज़ा निकला / अहमद नदीम क़ासमी

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क्या भला मुझ को परखने का नतीज़ा निकला
ज़ख़्म-ए-दिल आप की नज़रों से भी गहरा निकला

तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने
तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला

जब कभी तुझको पुकारा मेरी तनहाई ने
बू उड़ी धूप से, तसवीर से साया निकला

तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह होंठों पर
डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला

(तिश्नगी: प्यास)