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सादृश्य विधान / गिरिराज किराडू

Kavita Kosh से
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मैं जानता हूं आपने सब कुछ देखा हुआ ही है

और इसी कारण अन्धे हैं


पर क्या आपने कभी देखी है वह भरपूर फैली हुई रोशनी जो आसपास रखे हुए आईनों के बची ऐसी

चंचला होती है कि उसके गिरते उछलते चलने को अपने दृश्य में रखने का यत्न करते हुए आंखें

खुद-ब-खुद उनके इस गिरने उछलने में शामिल हो जाती हैं


पेड़ों के पड़ौस में बरसों रहते आये कुछ लोग

ताजा पत्तियों के बीच इस तरह का खेल देखा होने की बात कभी कभी करते हैं

और कभी-कभी ही कई कवि इस तरह एक दूसरे को पकड़ते छोड़ते हुए

बच्चों की तरह दौड़ रहे होते हैं कि रोशनी उन सबके बीच फंसे कमजोर थके हारे खिलाड़ी की तरह खेल से बाहर होने लगती है

खैर,यह सब सादृश्य विधान है, आपने देखा ही होगा

पर क्या आईने के बीच गिरती पड़ती उछलती उस चंचला को आपने देखा है?


(प्रथम प्रकाशनः पूर्वग्रह,भारत भवन,भोपाल)