भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रखते सबकी खोज कबूतर / मधुसूदन साहा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:38, 15 अप्रैल 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधुसूदन साहा |अनुवादक= |संग्रह=ऋष...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐंटीना पर बैठा करते
रंग-रंग के रोज कबूतर।

उजले, नीले औए सलेटी
दादी देखे लेटी-लेटी,
झुंड बाँध आंगन में उतरे
करने को वनभोज कबूतर।

चिकनी-चिकनी चकमक पाँखे
गोल-गोल सुंदर-सी आँखें,
छत पर साँझ-सबेरे आकर
दिखलाते हैं पोज कबूतर।

दूर-दूर तक खत ले जाते
संदेशा सबको पहुँचाते,
जो भी जहाँ रहे घर-बाहर
रखते सबकी खोज कबूतर।

कभी किसी से नहीं झगड़ते
कभी न किसी बात पर लड़ते,
शांतिदूत बनकर जाते हैं
भारत से कंबोज कबूतर।