भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भीषण गरमी / मधुसूदन साहा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:49, 15 अप्रैल 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधुसूदन साहा |अनुवादक= |संग्रह=ऋष...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गरमी गरमी, भीषण गरमी
बढ़ती जाती हर क्षण गरमी।

कपड़े कुट्टी करते जाते,
तन पर पलभर नहीं सुहाते,
सूरज का आतंकी तेवर,
देख सभी भय से कतराते,
जाने क्या-क्या ले जाएगी,
बड़ी चतुर हैं रहजन गरमी।
 
नहीं सूखता कभी पसीना,
दूभर लगता ऐसे जीना,
घड़ी-घड़ी में सबको पड़ता,
दिनभर ठंढा पानी पीना,
तपे तवे पर बूँदों जैसी
हर पल करती छन-छन गरमी।

सूखे ताल-तलैया सारे,
बगुले भागे पंख पसारे,
इस जलते मौसम में सबके
ऊपर वाले ही रखवारे,

शायद शीतल मंद पवन से,
कर बैठी है अनबन गरमी।