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गुलमोहर / श्रीप्रकाश शुक्ल

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धूप खड़ी है
हवा स्तब्ध है

जेठ की धरती पपड़िया गई है
पगडण्डियाँ चिलचिला रही हैं

सड़क सुनसान है
और आदमी अपनी ही छाया में क़ैद है

एक ज़हर है
जिसमें पूरी बस्ती नीली हो गई है

बस, बचा है केवल गुलमोहर
जो अपने चटक लाल रंगों में
अभी भी खिलखिला रहा है !