भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कांशी के बाजार में, फिरता हूँ लाचार / प.रघुनाथ

Kavita Kosh से
Sandeeap Sharma (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:13, 27 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रघुनाथ शाण्डिल्य |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काशी के बाजार में, फिरता हूं लाचार मैं,
कर्ज के खातिर फिरूं बेचता, लोगों अपनी नार मैं ।।टेक।।

कोई वरदा ले लियो मोल, कहूं बजा के ढोल,
इसी विरह में तबियत मेरी, हो गई डांवा डोल,
नहीं निकलता बोल,
बेचूं नहीं उधार मैं, ऋषि का कर्जदार मैं,
जो कोई लेगा मोल, रहूंगा उसका ताबेदार मैं।।1।।

फूट गई तकदीर, ना चलती तदबीर,
कल तक तो थे राज के मालिक, बनगे आज फकीर,
बिगड़ गई तहरीर,
कदे बैठे थे दरबारां में, रहें थे गरमा चार में,
वे ही तीनों आज बिकेंगे, साठ सोरन के भार में।।2।।

यू बेटा मेरा रोहताश, है कैसा खड़ा उदास,
दो दिन हो गये इसे, मिला ना अन्न का ग्रास,
हो लिया घणा निराश,
कैसे करल्यूं पार मैं, दुखों की भरमार मैं,
सत के कारण आज बेचदूं, मां बेटे की लार मैं।।3।।

ये रणवासों की हूर, झड़ग्या इसका नूर,
कई रोज हुए चलते-चलते, मंजिल है घणी दूर,
हो गये हम मजबूर,
संशय के संसार में, कैसे उतरूं पार मैं,
कहै रघुनाथ आज करूंगा, जिन्दगी का उद्धार मैं।।4।।