भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
विभीषिका / प्रताप नारायण सिंह
Kavita Kosh से
Pratap Narayan Singh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:28, 1 अप्रैल 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप नारायण सिंह |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
टूटा कैसा आज कहर है!
सूनी सड़कें, सूनी गलियाँ
सूना सारा गाँव, नगर है
फन फैलाए, आशंका का
हर चौराहे पर विषधर है
द्वार-द्वार मातम सा पसरा
सबके मन में बैठा डर है
हँसी-ठहाकों के सम्पुट पर
लगे आज चिंता के ताले
सुख की कोठर स्याह पड़ी अब
पीड़ा बुनती पग-पग जाले
उल्लासों के पुष्प अचेतन
सूखे तरुवर, कठिन डगर है
रहा सदा पर अविजित मानव,
अविरल रही सृष्टि की धारा
झंझावात, भँवर मुट्ठी में-
-भर, पाया गंतव्य, किनारा
छिन्न-भिन्न यह तम भी होगा
जीवन-ज्योति अतीव प्रखर है