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विभीषिका / प्रताप नारायण सिंह

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टूटा कैसा आज कहर है!

सूनी सड़कें, सूनी गलियाँ
सूना सारा गाँव, नगर है
फन फैलाए, आशंका का
हर चौराहे पर विषधर है

द्वार-द्वार मातम सा पसरा
सबके मन में बैठा डर है

हँसी-ठहाकों के सम्पुट पर
लगे आज चिंता के ताले
सुख की कोठर स्याह पड़ी अब
पीड़ा बुनती पग-पग जाले

उल्लासों के पुष्प अचेतन
सूखे तरुवर, कठिन डगर है

रहा सदा पर अविजित मानव,
अविरल रही सृष्टि की धारा
झंझावात, भँवर मुट्ठी में-
-भर, पाया गंतव्य, किनारा

छिन्न-भिन्न यह तम भी होगा
जीवन-ज्योति अतीव प्रखर है