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महज़ धागा नहीं / नवीन दवे मनावत

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महज धागा नहीं होता
रक्षासूत्र!
होता है एक अटूट विश्वास
और समर्पण का बंधन!
जिसमे संगठित होती है
समन्वय की गांठें
जो शायद खुलना नहीं चाहती,
रहना चाहती है बंधन में
हर आदमी के भीतर तक!

वह धागा आत्मा की
ज्योति होता है
जिसमें प्रज्वलित और शुद्ध होता है
अंतर्मन,
जिसके कारण नहीं पनपतें
बुरे विचारों के धूंएँ
और ईर्द-गिर्द के कालेपन के निशान!

रक्षा की परिभाषा को
बताता है वह धागा
जिसमे नहीं हो अबला की आह!
न भटके कोई मृगतृष्णा राह!
वह धागा
केवल एक आत्मिक समर्पण है
आत्मा का आत्मा से।