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कितना चौड़ा पाट नदी का ... / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

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कितना चौड़ा पाट नदी का
कितनी भारी शाम
कितने खोए - खोए से हम
कितना तट निष्काम

कितनी बहकी - बहकी-सी
दूरागत वंशी टेर
कितनी टूटी - टूटी-सी
नभ पर विहंगों की फेर

कितनी सहमी - सहमी-सी
क्षिति की सुरमई पिपासा
कितनी सिमटी - सिमटी-सी
जल पर तट तरु अभिलाषा

कितनी चुप - चुप गई रोशनी
छिप - छिप आई रात
कितनी सिहर - सिहर कर
अधरों से फूटी दो बात

चार नयन मुस्काए
खोए, भीगे फिर पथराए
कितनी बड़ी विवशता
जीवन की कितनी कह पाए ।