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गांधी / ईप्सिता षडंगी / हरेकृष्ण दास

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गांधी
एक प्रतीक है
समाहार है कुछ ’लोगों’ ( logo) का
एक ऐसा ब्राण्ड
जिसके पीछे आसानी से छु्पाए जा सकते हैं
सारे कर्म - अपकर्म और कुकर्म ।

गोलाकार चश्मे की छवि बनाकर
ढिंढोरा पीटा जा सकता है स्वच्छता का;
बदला जा सकता है
अपनी झोली में छुपाए हुए पाप को
बनी बनाई कहानियों की आड़ में;

गांधी की वह लाठी भी अब
एक चौकन्नी पहरेदार है जैसे;

घुटनों तक भी न पहुँचने वाली
तुम्हारी वह धोती छोटी-सी
अब मज़दूरों के लिए एक प्रतीक मात्र है
सम्वेदना का;

तुमने कभी पहना ही न थी जो
वह गांधी टोपी अब एक
अनोखा वसन है
अपने बदन की गन्दगी को छुपाने का ।

घड़ी की आड़ में
समय का ज्ञान देने वाला इनसान
ख़ुद बेफ़िक्र होता है हमेशा वक़्त को लेकर !

आभूषण से लेकर दर्शन तक
हर एक चीज का तिजोरी हो तुम बापू !

हर कोई ले जाता है उतना तुमसे
बस, जितना चाहिए होता है उसे ।

इससे ज़्यादा है क्या
हमें सौंपी हुई तुम्हारी ये स्वतंत्रता ?

किसी को शायद मिल जाता होगा कुछ ऐसा
जो है — इंसानियत, आदर्श और दर्शन से परे,
पर मुझे नज़र आ्ती है सिर्फ़ आँसुओं की धार
बहती हुई तुम्हारी नज़रों से हमेशा ।।

काश !
कभी वापिस लौटकर आ सकते तुम !

मूर्ति से मानवजीवन तक की यात्रा
ज़रा भी मुश्किल तो नहीं तुम्हारे लिए, बापू !
बिल्कुल भी मुश्किल तो नहीं ।।

ओड़िआ से अनुवाद : हरेकृष्ण दास