भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अब का समुझावती को समुझै बदनामी के बीज तो बो चुकी री / ठाकुर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:20, 3 जून 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ठाकुर }} <poem> अब का समुझावती को समुझै बदनामी के बीज...)
अब का समुझावती को समुझै बदनामी के बीज तो बो चुकी री ।
तब तौ इतनौ न बिचार कयो इहिँ जाल परे कहु को चुकी री ।
कहि ठाकुर या रस रीति रँगे करि प्रीति पतिब्रत खो चुकी री ।
सखि नेकी बदी जो बदी हुती भाल पै होनी हुती सु तो हो चुकी री
ठाकुर का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।