भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुझको तेरी अस्ति छू गई / विद्यावती कोकिल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:05, 7 सितम्बर 2009 का अवतरण ("मुझको तेरी अस्ति छू गई / विद्यावती कोकिल" सुरक्षित कर दिया [edit=sysop:move=sysop])

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुझको तेरी अस्ति छू गई है
अब न भार से विथकित होती हूँ
अब न ताप से विगलित होती हूँ
अब न शाप से विचलित होती हूँ
जैसे सब स्वीकार बन गया हो।
मुझको तेरी अस्ति छू गई है।

पर्वत का हित मुझको जड़ न बनाता
प्रकृति हृदय का तम न मुझको ढँक पाता
आज उदधि का ज्वार न मुझे डुबोता
जैसे सब शृंगार बन गया हो।
मुझको तेरी अस्ति छू गई है।

दरिद्रता का यह मतवाला नर्तन
पीड़ाओं का उसमें आशिष-वर्षन
तेरी चितवन का जो मूक प्रदर्शन
तेरी मुख-अनुहार बन गया हो।
मुझको तेरी अस्ति छू गई है।