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आप की संगत का ये’ अंदाज़ मन को भा गया / पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"
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आप की संगत का ये’ अंदाज़ मन को भा गया
गर्दिश-ए-दौराँ में हमको, मुस्कुराना आ गया
टूट कर बरसा जो बादल, घुप अँधेरा छा गया
था उजाला दिन का लेकिन, रौशनी को खा गया
रेज़ा-रेज़ा कातिलों ने, जिस्म मेरा कर दिया
खून बिखरा रंग बनकर, वादीयाँ चमका गया
आग से तो बच गया मैं ,मौत आनी थी मगर
बचते-बचते फिर भी मैं, पानी से धोका खा गया
हम मुहब्बत में, शिकस्ता पा हुए तो ग़म नहीं
रफ्ता-रफ्ता दोस्तों ,तुम को तो चलना आ गया