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अप्सरा का श्राप / रूचि भल्ला

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मैं कभी नहीं कहूँगी तुमसे
मैं प्यार करती हूँ
प्यार कहा कहाँ जाता है
प्यार किया जाता है
मैं प्यार करूँगी
जैसे करती है एक कोयल आम के पेड़ से
पेड़ करता है कोयल से
इंतज़ार में खिलते बौरों की महक
जब मिलती है कोयल को
कोयल रोक नहीं पाती खुद को
उड़ कर चली आती है नदी के पार
पेड़ से चल कर आने की शिकायत भी नहीं करती
समझती है मजबूरी मिट्टी में धँसे उसके पाँवों की
और फैला देती है आकर पत्तियों पर
अपने पंखों की थकान
पत्तियाँ बिछौने सी बिछ आती हैं
बन जाता है पेड़ हिंडोला
उग आते हैं पेड़ की बाँहों पर मीठे आम
आप कहने के लिए उसे आम का मौसम कह सकते हैं
जब एक कोयल आम की दवात में पंख भिगो कर
पत्तियों पर लिख रही होती है प्रेम...
ठीक वैसे
ठीक उस तरह से
मैं भी लिखूँगी कोरे कागज़ पर
पर कहूँगी कभी नहीं तुमसे