भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इक चाँद तीरगी में समर रोशनी का था / मयंक अवस्थी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:00, 6 दिसम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मयंक अवस्थी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> इक...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


इक चाँद तीरगी में समर रोशनी का था
फिर भेद खुल गया वो भँवर रोशनी का था

सूरज पे तूने आँख तरेरी थी , याद कर
बीनाइयों पे फिर जो असर रोशनी का था

सब चाँदनी किसी की इनायत थी चाँद पर
उस दाग़दार शै पे कवर रोशनी का था

मग़रिब की मदभरी हुई रातों में खो गया
इस घर में कोई लख़्ते –जिगर रोशनी का था

दरिया में उसने डूब के कर ली है खुदकुशी
जिस शै का आसमाँ पे सफर रोशनी का था

जर्रे को आफताब बनाया था हमने और
धरती पे कहर शामो-सहर रोशनी का था