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कभी छलका नहीं था एक कतरा आब आंँखों से/ धर्वेन्द्र सिंह बेदार

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कभी छलका नहीं था एक कतरा आब आंँखों से
मगर अब आंँसुओं का बह रहा सैलाब आंँखों से

किसी की याद आई है कि बरसों बाद आई है
किसी की राह हम भी तक रहे बेताब आंँखों से

सनम इस चांँद जैसे हुस्न पर इतना न इतराओ
कि हमने डूबते देखे यहाँँ महताब आंँखों से

घड़ी भर के लिए आया विसाल-ए-यार का सपना
मगर फिर हो गया ग़ायब सुनहरा ख़्वाब आंँखों से

फ़क़त हम ही नहीं बेदार हैं फ़ुर्क़त की रातों में
हमें 'बेदार' तुम भी लगते हो कम-ख़्वाब आंँखों से