भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खूब हसरत से कोई प्यारा-सा सपना देखे / लक्ष्मीशंकर वाजपेयी

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:40, 1 अक्टूबर 2016 का अवतरण (लक्ष्मीशंकर जी की ग़ज़ल)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खूब हसरत से कोई प्यारा-सा सपना देखे
फिर भला कैसे उसी सपने को मरता देखे।

अपने कट जाने से बढ़कर ये फ़िक्र पेड़ को है
घर परिंदों का भला कैसे उजड़ता देखे।

मुश्किलें अपनी बढ़ा लेता है इन्सां यूँ भी
अपनी गर्दन पे किसी और का चेहरा देखे।

बस ये ख्वाहिश है, सियासत की, कि इंसानों को
ज़ात या नस्ल या मज़हब में ही बंटता देखे।

जुर्म ख़ुद आके मिटाऊंगा कहा था, लेकिन
तू तो आकाश पे बैठा ही तमाशा देखे।

छू के देखे तो कोई मेरे वतन की सरहद
और फिर अपनी वो जुर्रत का नतीजा देखे।