भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर होती हैं औरतें, सराय होती हैं / प्रज्ञा पाण्डेय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:32, 2 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रज्ञा पाण्डेय |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> घर होती हैं…)
घर होती हैं औरतें
सराय होती हैं ।
अन्नपूर्णा होती हैं
पुआल होती है ।
ओढ़ना बिछौना सपना
मचान होती हैं ।
दुआर दहलीज तो होती हैं
सन्नाटा सिवान होती हैं ।
खलिहान और अन्न तो होती हैं
अक्सर आसमान होती हैं ।
कच्ची मिट्टी घर की भीत
थूनी थवार होती हैं ।
बारिशी दिनों में ओरी से चूती हैं
पोखर होती हैं सेवार होती हैं ।
अक्सर बँसवार होती हैं ।
औरते बंदनवार होती हैं ।
छूने पर छुई-मुई तो होती है
तफ़ानों में
खेवयिया होती हैं
पतवार होती हैं ।