भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िन्दगी को ग़र्क़ कर दे जो खुमो-खुमार में / दरवेश भारती
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:56, 12 अप्रैल 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दरवेश भारती |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ज़िन्दगी को ग़र्क़ कर दे जो खुमो-खुमार में
क्या तमीज़ उसे हो बेक़रारी-ओ-क़रार में
राह देखते ही देखते तमाम शब गयी
इक चिराग़ बुझ गया सहर के इन्तिज़ार में
एक है चमन, मगर ये खेल है नसीब का
फूल कुछ न खुल के खिल सके भरी बहार में
आदमी के वास्ते भी है वो लाज़िमी बहुत
जिस सिफ़त का है वुजूद दुर्रे-आबदार में
ख़ामुशी से वक़्त को गुज़ारिये कुछ इस तरह
कुछ कमी न आने पाये आपके वक़ार में