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परछाईं / कल्पना पंत

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बेचैन धरती घूमती है
घूमते हैं बेचैन ग्रह
चक्राकार घूमते हैं चक्के
इच्छाएं कम नहीं होतीं ।

इच्छाओं की फाँस तले
ग्रहों, उपग्रहों की भाँति
घूम रहे हम सब

जहाँ से चलते हैं
फिर वहीं पहुँच जाते हैं
सुबह के अख़बारों के दर्शनीय
श्रीमन्त साँझ ढले जब घर जाते हैं
अपनी ही परछाईं से डर जाते हैं ।