भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बांहों में समंदर के दरया का सिमट जाना / रमेश 'कँवल'

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:07, 8 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश 'कँवल' |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhaz...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बांहो में समुन्दर के दरिया का सिमट जाना
और देख के ये मंज़र तेरा वो क़रीब आना

ले ले के तेरा नाम अब कसते है सभी ताना
तुझ बिन मेरे जीवन का सूना है सनम-ख़ाना1

घायल है हर इक ऩग्मा तुम रूठ गये जब से
तुम से है मेरी ख़ुशियां क्यों तुमने नहीं जाना

इमरोज़ के मंज़र पर सदन क़्श हैं माज़ी के
माज़ी से है कैफ़ आगीं इमरोज़ का मयख़ाना2

मां बाप की खुशियां थीं राहों में 'कंवल’ अपनी
वरना हमें आता था संसार से टकराना


1 मंदिर 2. मदिरालय।