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मिलने-जुलने की शुरुआत कहाँ से होती / गोविन्द गुलशन

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मिलने-जुलने की शुरुआत कहाँ से होती
फ़ासले थे तो मुलाक़ात कहाँ से होती

एक बस आग-सी सीने में लिए फिरते रहे
ऎसे बादल थे तो बरसात कहाँ से होती

क़ैद कर ही लिया सूरज को जब आँखों ने तो फिर
दिल की दुनिया में कोई रात कहाँ से होती

राह में बन गई दीवार हया की परतें
बन्द आँखें थीं कोई बात कहाँ से होती

हमको मालूम था, है कौन हमारा दुश्मन
ऎसी सूरत में कोई घात कहाँ से होती