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समझ के रिन्द न महफ़िल में तू उछाल मुझे / साग़र पालमपुरी

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समझ के रिन्द न महफ़िल में तू उछाल मुझे

मैं गिर न जाऊँ कहीं साक़िया! सँभाल मुझे


तेरी गली से गुज़रता हूँ मूँद कर आँखें

कि बाँध ले न कहीं तेरा मोह जाल मुझे


नज़र तो क्या मैं तेरी रूह से उतर जाऊँ

हया के रेशमी गुंजल से तो निकाल मुझे


मेरे जुनून का कारन तो पूछता मुझसे

गया जो वहम के अंधे कुएँ में डाल मुझे


नक़ाब रुख़ से उठा, सामने तो आ इक पल

हूँ तेरी दीद का तालिब न कल पे टाल मुझे


वो ख़्वाब हूँ जो बिखर जाएगा सहर होते

तुझे क़सम है निगाहों में यूँ न पाल मुझे


मेरी तहों में मिलेंगे ख़ुलूस के मोती

मैं इक वफ़ा का समंदर हूँ तू खँगाल मुझे


बड़ी लतीफ़ थी उसके बदन की धूप मगर

जला ही डालेगी ऐसा न था ख़्याल मुझे


गो एक पल ही वो ओझल मेरी नज़र से हुआ

लगा कि उससे मिले हो चुके हैं साल मुझे


मेरे शफ़ीक़, मेरे हमनवा, मेरे रहबर!

अना की भूल भुलैयाँ से तू निकाल मुझे


ये उसकी याद का आसेब तो नहीं ‘साग़र’!

कि खुल के साँस भी लेना है अब मुहाल मुझे.


ख़ुलूस=निष्कपटता; सरलता,सादगी; शफ़ीक़=कृपालु; आसेब=प्रेतबाधा