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हर एक लफ़्ज़ पे वो जाँ निसार करता है / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

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हर एक लफ़्ज़ पे वो जाँ निसार करता है
अदब नवाज़ है उर्दू से प्यार करता है

हमेशा चलते ही रहने की कैफ़ियत अच्छी
ठहर के वक़्त कहाँ इंतज़ार करता है

क़रीब आके मेरे दिल में झाँक कर देखे
नज़र के तीर से क्यों कर वो वार करता है

तअल्लुक़ात का मौसम अजीब है मौसम
कभी ये ख़ुश्क कभी ख़ुशगवार करता है

फ़रेबो-मक्र से मारा है पीठ में ख़न्जर
वगरना, मर्द तो सीने पे वार करता है

उसी के वास्ते रब ने बनाई है जन्नत
जो काम नेक यहाँ बेशुमार करता है

अता हुई है, हमेशा ही रहनुमाई 'रक़ीब'
जो सर निगूँ दरे-परवर दिगार करता है