अंगूठा छाप औरतों के लिए विदा-गीत / लक्ष्मीकान्त मुकुल
जब बुदबुदा जाती हवाएं आतुर कंठ से
कि हो रहा है आषाढ़ का शुभागमन
उठने लगतीं सूखी हुई आंध्यिां
अरराने लगता कलूटा दखिनहा पहाड़
टूट-बिखरने लगते अंगने में तुलसी के मंजर
गांव का हर कोना शोर में डूबने लगता
कठिन पलों में भी उबलती हुई गाती रहती
गाती रहती गुस्सैल मनोभावों से
मेघों की गुहार में मंगल गीत
थामे हुए थकान पूरे साल की
खेतों से खलिहान तक हाथे-माथे
मेरे गांव की अंगूठा छाप औरतें
उतरने लगता सूरज उनींदी झपकियों के झीने जाल में
वे गाने लगतीं
हवा के हिंडोले पर बैठकर तैरने लगती पक्षियों की वक्र पंक्तियां
वे गाने लगतीं
गाने लगती तेज चलती हुई लू में चंवर डुलाती हुई
उनके गीतों में अनायास ही उभर जाते
साहूकार के तगादे में अंटते जाते पुरुखों के खेत
कर्ज में डूबते दिखते बगीचे के सखुआ-आम
बह जाते पानी की तेज धर में सपनों के ऐरावत
उनके जाते ही थरथराने लगते तूत के पत्ते
शुरु हो जाता गौरेयों का क्रंदन
पफटने लगती सीवान का छाती
भहराई हुई गलियां भी भेंट करने दौड़ जातीं
जैसे कि फूट पड़ा हो ध्रती का आदिम-राग।