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अखरावट / पृष्ठ 3 / मलिक मोहम्मद जायसी

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मुखपृष्ठ: अखरावट / मलिक मोहम्मद जायसी


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दोहा

छोडि देहु सब धंधा, काढि जगत सौ हाथ ॥
घर माया कर छोडि कै, धरु काया कर साथ ॥

सोरठा

साँई के भंडारु, बहु मानिक मुकुता भरे।
मन-चोरहि पैसारु, मुहमद तौ किछु पाइए ॥21॥

ता-तप साधहु एक पथ लागे । करहु सेव दिन राति, सभागे !॥
ओहि मन लावहु, रहै न रूठा । छोडहु झगरा, यह जग झूठा ॥
जब हंकार ठाकुर कर आइहि । एक घरी जिउ है न पाइहि ॥
ऋतु बसंत सब खेल धमारी । दगला अस तन, चढब अटारी ! ॥
सोइ सोहागिनि जाहि सोहागू । कंत मिलै जो खेलै फागू ॥
कै सिंगार सिर सेंदुर मेलै । सबहि आइ मिलि चाँचरि केलै ॥
औ जो रहै गरब कै गोरी । चढै दुहाग, जरै जस होरी ॥

दोहा

खेलि लेहु जस खेलना, ऊख आगि देइ लाइ ।
झूमरि खेलहु झूमि कै पूजि मनोरा गाइ ॥

सोरठा

कहाँ तें उपने आइ, सुधि बुधि हिरदय उपजिए ।
पुनि कहँ जाहिं समाइ, मुहमद सो खँड खोजिए ॥22॥

था-थापहु बहु ज्ञान बिचारू । जेहि महँ सब समाइ संसारू ॥
जैसी अहै पिरथिमी सगरी । तैसिहि जानहु काया-नगरी ॥
तन महँ पीर औ बेदन पूरी । तन महँ बैद औ ओषद मूरी ॥
तन महँ विष औ अमृत बसई । जानै सो जो कसौटी कसई ॥
का भा पढे गुने औ लिखे ? करनी साथ किए औ सिखे ॥
आपुहि खोइ ओहि जो पावा । सो बीरौ मनु लाइ जमावा ॥
जो ओहि हेरत जाइ हेराई । सो पावै अमृत-फल खाई ॥

दोहा

आपुहि खौए पिउ मिलै, पिउ खोए सब जाइ ।
देखहु बूझि बिचार मन, लेहु न हेरि हेराइ ॥

सोरठा

कटु है पिउ कर खोज; जो पावा सो मरजिया ।
तह नहिं हँसी, न रोज; मुहमद ऐसै ठाँवँ वह ॥23॥

दा-दाया जाकह गुरु करई । सो सिख पंथ समुझि पग धरई ॥
सात खंड औ चारि निसेनी । अगम चढाव, पंथ तिरबेनी ॥
तौ वह चढै जौ गुरू चढावै । पाँव न डगै, अधिक बल पावै ॥
जो गुरु सकति भगति भा चेला । होइ खेलार खेल बहु खेला ॥
जौ अपने बल चढि कै नाँघा । सो खसि परा, टूटि गइ जाँघा ॥
नारद दौरि संग तेहि मिला । लेइ तेहि साथ कुमारग चला ॥
तेली-बैल जो निसि दिन फिरई । एकौ परग न सो अगुसरई ॥

दोहा

सोइ सोधु लागा रहै जेहि चलि आगे जाइ ।
नतु फिरि पाछे आवई, मारग चलि न सिराइ ॥

सोरठा

सुनि हस्ति कर नाव, अँधरन्ह टोवा धाइ कै ।
जेइ टोवा जेहि ठावँ, मुहमद सो तैसे कहा ॥24॥

धा-धावहु तेहि मारग लागे । जेहि निसतार होइ सब आगे ॥
बिधिना के मारग हैं ते ते । सरग-नखत तन-रोवाँ जेते ॥
जेइ हेरा तेइ तहँवैं पावा । भा संतोष, समुझि मन गावा ॥
तेहि महँ पंथ कहौं भल गाई । जेहि दूनौ जग छाज बडाई ॥
सो बड पंथ मुहम्मद केरा । है निरमल कबिलास बसेरा ॥
लिखि पुरान बिधि पठवा साँचा । भा परवाँन, दुवौ जग बाँचा ॥
सुनत ताहि नारद उठि भागै । छूटै पाप, पुन्नि सुनि लागै ॥

दोहा

वह मारग जो पावै सो पहुँचै भव पार ।
जो भूला होइ अनतहि तेहि लूटा बटपार ॥

सोरठा

साईं केरा बार, जो थिर देखै औ सुनै ।
नइ नइ करै जोहार, मुहमद निति उठि पाँच बेर ॥25॥

ना-नमाज है दीन क थूनी । पढै नमाज सोइ बड गूनी ॥
कही तरीकत चिसती पीरू । उधरति असरफ औ जहँगीरू ॥
तेहि के नाव चढा हौ धाई । देखि समुद-जल जिउ न डेराई ॥
जेहि के एसन खेवक भला । जाइ उतरि निरभय सो चला ॥
राह हकीकत परै न चूकी । पैठि मारफत मार बुडूकी ॥
ढूँढि उठै लेइ मानिक मोती । जाइ समाइ जोति महँ जोती ॥
जेहि कहँ उन्ह अस नाव चढावा । कर गहि तीर खेइ लेइ आवा ॥

दोहा

साँची राह सरीअत, जेहि बिसवास न होइ ।
पाँव राख तेहि सीढी निभरम पहुँचै सोइ ॥

सोरठा

जेइ पावा गुरु मीठ, सो सुख-मारग महँ चलै ।
सुख अनंद भा डीठ, मुहमद साथी पोढ जेहि ॥26॥

पा-पाएउँ गुरु मोहदी मीठा । मिला पंथ सो दरसन दीठा ॥
नावँ पियार सेख बुरहानू । नगर कालपी हुत गुरु-थानू ॥
औ तिन्ह दरस गोसाईं पावा । अलहदाद गुरु पंथ लखावा ॥
अलहदाद गुरु सिद्ध नवेला । सैयद मुहमद के वै चेला ॥
सैयद मुहमद दीनहिं साँचा । दानियाल सिख दीन्ह सुबाचा ॥
जुग जुग अमर सो हजरत ख्वाजे । हजरत नबी रसूल नेवाजे ॥
दानियाल तहँ परगट कीन्हा । हजरत ख्वाज खिजिर पथ दीन्हा ॥

दोहा

खडग कीन्ह उन्ह जाइ कहँ, देखि डरै इबलीस ।
नावँ सुनत सो बागै, धुनै ओट होइ सीस ॥

सोरठा

देखि समुद महँ सीप,बिनु बूडे पावै नहीं ।
होइ पतंग जल-दीप मुहमद तेहि धँसि लीजिए ॥27॥

फा फल मीठ जो गुरु हुँत पावै । सो बीरौ मन लाइ जमावै ॥
जौ पखारि तन आपन राखै । निसि दिन जागै सो फल चाखै ॥
चित झूलै जस झूलै ऊखा । तजि कै दोउ नींद औ भूखा ॥
चिंता रहै ऊख पहँ सारू । भूमि कुल्हाडी करै प्रहारू ॥
तन कोल्हू मन कातर फेरै । पाँचौ भूत आतमहि पेरै ॥
जैसे भाठी तप दिन राती । जग-धंधा जारै जस बाती ॥
आपुहि पेरि उडावै खोई । तब रस औट पाकि गुड होई ॥

दोहा

अस कै रस औटावहु जामत गुड होइ जाइ ।
गुड ते खाँड मीठि भइ, सब परकार मिठाइ ॥

सोरठा

धूप रहै जग छाइ, चहूँ खंड संसार महँ ।
पुनि कहँ जाइ समाइ,मुहमद सो खंड खोजिए ॥28॥

बा-बिनु जिउ तन अस अँधियारा । जौं नहिं होत नयन उजियारा ॥
मसि क बुंद जो नैनन्ह माहीं । सोई प्रेम-अंस परछाहीं ॥
ओहि जोति सौं परखै हीरा । ओहि सौ निरमल सकल सरीरा ॥
उहै जोति नैनन्ह महँ आवै । चमकि उठै जस बीजू देखावे ॥
मग ओहि सगरे जाहिं बिचारू । साँकर मुँह तेहि बड बिसतारू ॥
जहवाँ किछु नहिं, है सत करा । जहाँ छूँछ तहँ वह रस भरा ॥
निरमल जोति बरनि नहिं जाई । निरखि सुन्न यह सुन्न समाई ॥

दोहा

माटी तें जल निरमल, जल तें निरमल बाउ ।
बाउहु तें सुठि निरमल, सुनु यह जाकर भाउ ॥

सोरठा

इहै जगत कै पुन्न, यह जप तप सब साधना ।
जानि परै जेहि सुन्न, मुहमद सोई सिद्ध भा ॥29॥

भा-भल सोइ जो सुन्नहि जानै । सुन्नहि तें सब जग पहिचानै ॥
सुन्नहि तें है सुन्न उपाती । सुन्नहि तें उपजहिं बहु भाँती ॥
सुन्नहि माँझ इंद्र बरम्हंडा । सुन्नहि तें टीके नवखंडा ॥
सुन्नहि तें उपजे सब कोई । पुनि बिलाई सब सुन्नहि होई ॥
सुन्नहि सात सरग उपराहीं । सुन्नहि सातौ धरति तराहीं ॥
सुन्नहि ठाट लाग सब एका । जीवहिं लाग पिंड सगरे का ॥
सुन्नम सुन्नम सब उतिराई । सुन्नहि महँ सब रहे समाई ॥

दोहा

सुन्नहि महँ मन-रूख जस काया महँ जीउ ।
काठी माँझ आगि जस, दूध माहँ जस घीउ ॥

सोरठा

जावँन एकहि बूँद, जामै देखहु छीर सब ।
मुहमद मोति समुद, काढहु मथनि अरंभ कै ॥30॥

मा-मन मथन करै तन खीरू । दुहै सोइ जो आपु अहीरू ॥
पाँचौ भूत आतमहि मारै । दरब-गरब करसी कै जारै ॥
मन माठा सम अस कै धौवै । तन खैला तेहि माहँ बिलोवै ॥
जपहु बुद्धि कै दुइ सन फेरहु । दही चूर अस हिया अभेरहु ॥
पछवाँ कढुई कैसन फेरहु । ओहि जोति महँ जोति अभेरहु ॥
जस अंतरपट साढी फूटै । निरमल होइ मया सब छूटै ॥
माखन मूल उठै लेइ जोती । समुद माँह जस उलथै मोती ॥


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