अखरावट / पृष्ठ 2 / मलिक मोहम्मद जायसी
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दोहा
तन-तुरंग पर मनुआ, मन-मस्तक पर आसु ।
सोई आसु बोलावई अनहद बाजा पासु ॥
सोरठा
देखहु कौतुक आइ , रूख समाना बीज महँ ।
आपुहि खोदि जमाइ मुहमद सो फल चाखई ॥11॥
चा-चरित्र जौ चाहहु देखा । बूझहु बिधना केर अलेखा ॥
पवन चाहि मन बहुत उताइल । तेहिं तें परम आसु सुठि पाइल ॥
मन एक खंड न पहुचै पावै । आसु भुवन चौदह फिरि आवै ॥
भा जेहि ज्ञान हिये सो बूझै । जो धर ध्यान न मन तेहि रूझै ॥
पुतरी महँ जो बिंदि एक कारी । देखौ जगत सो पट बिस्तारी ॥
हेरत दिस्टि उघरि तस आई । निरखि सुन्न महँ सुन्न समाई ॥
पेम समुन्द सो अति अवगाहा । बूडै जगत न पावै थाहा ॥
दोहा
जबहिं नींद चख आवै उपजि उठै संसार ।
जागत ऐस न जानै, दहुँ सौ कौन भंडार ॥
सोरठा
सुन्न समुद चख माहि जल जैसी लहरैं उठहिं ।
उठि उठि मिटि मिटि जाहिं, मुहमद खोज न पाइए ॥12॥
छा-छाया जस बुंद अलोपू । ओठई सौं आनि रहा करि गोपू ॥
सोइ चित्त सों मनुवाँ जागै । ओहि मिलि कौतुक खेलै लागै ॥
देखि पिंड कहँ बोली बोलै । अब मोहिं बिनु कस नैन न खोलै ? ॥
परमहंस तेहि ऊपर देई । सोऽहं सोऽहं साँसै लेई ॥
तन सराय, मन जानहु दीया । आसु तेल, दम बाती कीआ ॥
दीपक महँ बिधि-जोति समानी । आपुहि बरै । निरबानी ॥
निघटे तेल झूरि भइ बाती । गा दीपक बुझि, अँधियरि राती ॥
दोहा
गा सो प्रान-परैवा, कै पींजर-तन छूँछ ।
मुए पिंड कस फूलै ? चेला गुरु सन पूछ ॥
सोरठा
बिगरि गए सब नावँ, हाथ पाँव मुँह सीस धर ।
तोर नावँ केहि ठाँव, मुहमद सोइ बिचारिए ॥13॥
जा-जानहु अस तन महँ भेदू । जैसे रहै अंड महँ मेदू ॥
बिरिछ एक लागी दुइ डारा । एकहिं तें नाना परकारा ॥
मातु के रकत पिता के बिंदू । उपने दवौ तुरुक औ हिंदू ॥
रकत हुतें तन भए चौरंगा । बिदु हुतें जिउ पाँचौ संगा ॥
जस ए चारिउ धरति बिलाहीं । तस वै पाँचौ सरगहि जाहीं ॥
फूलै पवन, पानि सब गरई । अगिनि जारि तन माटी करई ॥
जस वै सरग के मारग माहाँ । तस ए धरति देखि चित चाहा ॥
दोहा
जस तन तस यह धरती, जस मन तैस अकास ।
परमहंस तेहि मानस, जैसि फूल महँ बास ॥
सोरठा
तन दरपन कहँ साजु दरसन दखा जौ चहै ।
मन सौं लीजिय माँजि मुहमद निरमल होइ दिआ ॥14॥
झा-झाँखर-तन महँ मन भूलै । काटन्ह माँह फूल जनु फूलै ॥
देखहुँ परमहंस परछाहीं । नयन जोति सो बिछुरति नाही ॥
जगमग जल महँ दीखत जैसे । नाहिं मिला, नहिं बेहरा तैसे ॥
जस दरपन महँ दरसन देखा । हिय निरमल तेहि महँ जग देखा ॥
तेहि संग लागीं पँचौ छाया । काम, कोह, तिस्ना, मद, माया ॥
चख महँ नियर, निहारत दूरी । सब घट माँह रहा भरिपूरी ॥
पवन न उडै, न भीजै पानी । अगिनि जरै जस निरमल बानी ॥
दोहा
दूध माँझ जस घीउ है, समुद माँह जस मोति ।
नैन मींजि जो देखहु, चमकि ऊठै तस जोति ॥
सोरठा
एकहि तें दुइ होइ, दुइ सौं राज न चलि सकै ।
बीचु तें आपुहि खोइ, मुहमद एकै होइ रहु ॥15॥
ना-नगरी काया बिधि कीन्हा । लेइ खोजा पावा, तेइ चीन्हा ॥
तन महँ जोग भोग औ रोगू । सूझि परै संसार-सँजोगू ॥
रामपुरी औ कीन्ह कुकरमा । मौन लाइ सोधै अस्तर माँ ॥
पै सुठि अगम पंथ बड बाँका । तस मारग जस सुई क नाका ॥
बाँक चढाव, सात खँड ऊँचा । चारि बसेरे जाइ पहूँचा ॥
जस सुमेरु पर अमृत मूरी । देखत नियर, चढत बडि दूरी ॥
नाँघि हिवंचल जो तहँ जाई । अमृत-मूरि-पाइ सो खाई ॥
दोहा
एहि बाट पर नारद बैठ कटक कै साज ।
जो ओहि पेलि पईठै, करै दुवौ जग राज ॥
सोरठा
`हौं' कहतै भए ओट, पियै खंड मोसौं किएउ ।
भए बहु फाटक कोट, मुहमद अब कैसे मिलहिं ॥16॥
टा-टुक झाँकहु सातौ खंडा । खंडै खंड लखहु बरम्हंडा ॥
पहिल खंड जो सनीचर नाऊँ । लखि न अँटकु, पौरी महँ ठाऊँ ॥
दूसर खंड बृहस्पति तहँवाँ । काम-दुवार भोग-घर जहँवाँ ॥
तीसर खंड जो मंगल जानहु । नाभि-कँवल महँ ओहि अस्थानहु ॥
चौथ खंड जो आदित अहई । बाईं दिसि अस्तन महँ रहई ॥
पाँचव खंड सुक्र उपराहीं ।कंठ माहँ औ जीभ-तराहीं ॥
छठएँ खंड बुद्ध कर बासा । दुइ बौंहन्ह के बीच निवासा ॥
दोहा
सातवँ सोम कपार महँ, कहा सो दसवँ दुआर ।
जो वह पवँरि उघारै सो बड सिद्ध अपार ॥
सोरठा
जौ न होत अवतार, कहाँ कुटुम परिवार सब ।
झूठ सबै संसार, मुहमद चित्त न लाइए ॥17॥
ठा-ठाकुर बड आप गोसाईं । जेइ सिरजा जग अपनिहि नाईं ॥
आपुहि आपु जौ देखै चहा । आपनि फ्रभुता आपु सौं कहा ॥
सबै जगत दरपन कै लेखा । आपुहि दरपन, आपुहि देखा ॥
आपुहि बन औ आपु पखेरू । आपुहि सौजा, आपु अहेरू ॥
आपुहि पुहुप फूलि बन फूले । आपुहि भँवर बास-रस भूले ॥
आपुहि फल, आपुहि रखवारा । आपुहि सो रस चाखनहारा ॥
आपुहि घट घट महँ मुख चाहै । आपुहि आपन रूप सराहै ॥
दोहा
आपुहि कागद, आपु मसि, आपुहि लेखनहार ।
आपुहि लिखनी, आखर, आपुहि पँडित अपार ॥
सोरठा
केहु नहिं लागिहि साथ, जब गौनब कबिलास महँ ।
चलब झारि दोउ हाथ, मुहमद यह जग छौडि कै ॥18॥
डा-डरपहु मन सरगहि खोई । जेहि पाछे पछिताव न होई ॥
गरब करै, जो हौं-हौं करई । बैरी सोइ गोसाइँ क अहई ॥
जो जाने निहचय है मरना । तेहि कहँ `मोर तोर' का करना ?॥
नैन, बैन सरबन बिधि दीन्हा । हाथ पाँव सब सेबक कीन्हा ॥
जेहिके राज भोग-सुख करई । लेइ सवाद जगत जस चहई ॥
सो सब पूछिहि, मैं जो दीन्हा । तैं ओहि कर कस अवगुन कीन्हा ॥
कौन उतर, का करब बहाना । बोवै बबुर, लवै कित धाना ? ॥
दोहा
कै किछु लेइ, न सकब तब, नितिहि अवधि नियराइ ।
सो दिन आइ जो पहुँचै, पुनि किछु कीन्ह न जाई ॥
सोरठा
जेइ न चिन्हारी कीन्ह, यह जिउ जौ लहि पिंड महँ ।
पुनि किछु परै न चीन्हिह, मुहमद यह जग धुंध होइ ॥19॥
ढा-ढारे जो रकत पसेऊ । सो जाने एहि बात क भेऊ ॥
जेहि कर ठाकुर पहरे जागै । सो सेवक कस सोवै लागै ?॥
जो सेवक सोवै चित देई । तेहि ठाकुर नहिं मया करेई ॥
जेइ अवतरि उन्ह कहँ नहिं चीन्हा । तेइ जनम अँबरिथा कीन्हा ॥
मूँदे नैन जगत महँ अवना । अंधधुंध तैसे तै गवना ॥
लेए किछु स्वाद जागि नहिं पावा । भरा मास तेइ सोइ गँवावा ॥
रहै नींद-दुख-भरम लपेटा । आइ फिरै तिन्ह कतहुँ न भेंटा ॥
दोहा
घावत बीते रैनि दिन, परम सनेही साथ ।
तेहि पर भयउ बिहान जब रोइ रोइ मींजै हाथ ॥
सोरठा
लछिमी सत कै चेरि, लाल करे बहु, मुख चहै ।
दीठि न देखै फेरि, मुहमद राता प्रेम जो ॥20॥
ना-निसता जो आपु न भएउ । सो एहि रसहि मारि विष किएऊ ॥
यह संसार झूठ, थिर नाहीं ।उठहि मेघ जेउँ जाइ बिलाहीं ॥
जो एहि रस के बाएँ भएऊ । तेहि कहँ रस विषभर होइ गएऊ ॥
तेइ सब तजा अरथ बेवहारू । और घर बार कुटुम परिवारू ॥
खीर खाँड तेहि मीठ न लागे । उहै बार होइ भिच्छा माँगै ॥
जस जस नियर होइ वह देखै । तस तस जगत हिया महँ लेखै ॥
पुहुमी देखि न लावै दीठी । हेरै नवै न आपनि पीठी ॥