अठारमोॅ अध्याय / गीता / कणीक
अठारमोॅ अध्याय
(मोक्ष संन्यास योग केनाम से अठारमोॅ अध्याय जानलोॅ जाय छै। होनां के सभ्भे धार्मिक ग्रंथोॅ के सार-स्वरूप वेदे छेकै। उपनिषद ही बेदोॅ के सार स्वरूप मानलोॅ जाय छै, जबेॅ कि सभ्भै उपनिषदोॅ के सार स्वरूप के रूप में गीता के ही मान्यता छै। भगवद् भक्ति ही गीता के सार स्वरूप समझलोॅ जाय छै। भगवानें शरणागत वत्सल कहाय छै। यै लेली सभ्भै केॅ त्यागी केॅ संन्यासी रूपोॅ में हुनकोॅ शरण गेला सें पाप मुक्ति के साथ-साथ मोक्ष प्राप्त करै के विधान यै अठारमोॅ अध्याय में उद्यृत छै। होनां केॅ कोय-कोय यै अध्याय के ष्ब्वदबसनेपवद ज्ीम च्मतजमबजपवद व ित्मदनदबपंजपवदष् यानि संन्यास-पूर्णता के परिणाम योग भी कहै छै। आत्म बोध या आत्म ज्ञान के दर्शण आरो ध्यान सर्वोच्च सत्ता तक पहुंचै के एक मार्ग अवश्य छै, मगर ओकर्हौ से आसान आरो नगीची मार्ग जे सर्वोच्च पूर्णता प्राप्त करै के छै-हौ भक्ति मार्ग के द्वारा समर्पण करल्है सें संभव छै। यही लेली बार-बार अर्जुन केॅ चेतैला के बादोॅ अन्तिम रूप में कृष्ण भगवानें कहिये देलकै-”सर्व धर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज“ जे गीता के अठारमोॅ अध्याय के सथे-साथ सौंस्है गीता के गुरू वाक्य बनलै।)
अर्जुन बोललै हे हृषीकेश!
सन्यास की छेकै? बतलाभौ
हे महावाहो! हे केशिनिषूदन
त्यागो हमरा समझाभौ॥1॥
भगवानें कहलकै सकल कर्म, परिणाम त्याग ही त्याग भेलै
जें वै त्यागोॅ के कर्म करै, बस वही सन्यासी भै गेलै॥2॥
त्यागोॅ में सभ टा कर्मोॅ केॅ, त्यागै लेॅ कहै कोय-कोय ज्ञानी
पर कहै कोय तप, दान, यज्ञ, त्यागै के नैं छै कोय मानीं॥3॥
हे भरत श्रेष्ठ! हे पुरूष ब्याघ्र! हम्में बतलावौं त्याग बात
जेकरोॅ स्वरूप त्रिविधोॅ में छै, वेदोॅ शास्त्रोॅ के मान्य बात॥4॥
है यज्ञ, दान आरो तप केॅ नैं, कभी त्याज्य-क्रिया बतलैनें छै
कैन्हें कि मनीषि केॅ पवित्र, यै त्याग्हैं हीं करवैने छै॥5॥
है तीन क्रिया परिणाम रहित, कर्त्तव्य कही केॅ जें खेपै
हे पार्थ! वें निश्चय ही उत्तम, मत के सन्यासोॅ केॅ रोपै॥6॥
निश्चित कर्मोॅ के त्याग यदि, कोय मोह वसोॅ में ही करतै
जेे त्याज्य नहीं ओकरा त्यागै, के कर्म सिर्फ तामस करतै॥7॥
निश्चित कर्मो के त्याग यदि, कोय कष्ट जानि भय वस करतै
एकरा सें दुःख तेॅ निश्चित छै, है कर्म सिर्फ राजस करतै॥8॥
लेकिन हे अर्जुन! बिनु फल जे, निश्चित कर्मो के त्याग करै
हमरा मत में हौ त्यागी ही, सात्विक धारा के कार्य करै॥9॥
अकुशल देखि नैं घृणा करै, नैं प्रेम देखावै कुशलोॅ पर
हौ निश्चय ही सत्वोॅ में समाहित, कार्य त्याग के ही बल पर॥10॥
है देह धारी केॅ बड्डी कठिन, सभ कर्म के त्यागै खासी छै
यै लेली कर्म फल त्यागी ही, सही माने में सन्यासी छै॥11॥
छै इष्ट-अनिष्ट औॅ मिश्रित फल, यै दुनियाँ में अत्यागी केॅ
पर एकरा से दरकार कहाँ, जीवन क्रम के सन्यासी केॅ॥12॥
हे महावाहो! पाँचे कारण, समझो जे साँख्य में दर्शित छै
ओकरा सें सिद्धै सकल कर्म, जे दर्शण में ही प्रदर्शित छै॥13॥
हौ कर्मक्षेत्र, कर्त्ता, कमेन्द्रिय, पृथक चेष्ट आरो देव रहै
यै पाँच्हौ सूत्रोॅ सें सिद्धि कर्मोॅ के मार्ग प्रसस्त बनै॥14॥
मनसा, बाचा औॅ काया सें, कोय गलत सही जें कर्म करै
बस, है पाँचोॅ टा कारण बनि, जेकरा से ओकरो मर्म धरै॥15॥
यै लेली मनुज जे कर्म करै, आत्मा केॅ कर्त्ता ही मानै
हौ मूढ़ छै ज्ञानी नै यथार्थ, वें असली ज्ञान नै पहचानै॥16॥
जेकरा नैं अहं कर्त्ता बनै केॅ, जेकरोॅ बुद्धि छै कर्म लिप्त
वें यदि लोकोॅ केॅ मारै भी, तैइयो छै बिल्कुल पाप मुक्त॥17॥
छै ज्ञान ज्ञेय आरो ज्ञानी ही, बस त्रिविध रूप में कार्य करै
कर्ता, इन्द्रिय आरो कर्म ही छै, जे विविधोॅ के आधार बनै॥18॥
प्रकृति त्रिगुणोॅ के भेद लेली, छै ज्ञान, कर्म, कर्त्ता ही सही
है अलग गुणोॅ के अलग धर्म, जेकरा बतलावौ सही-सही॥19॥
सात्विक जन में वस ज्ञान एक, जें जोड़ै अव्यय तत्वोॅ केॅ
यद्यपि अलग हर देहोॅ में, तैइयो जुटलोॅ छै तत्वो सें॥20॥
राजस जन में जे ज्ञान बसै, वें अलगे-अलग हिसाब रखै
वें हर अव्यय केॅ भिन्न बुझै, हर देहोॅ के वें पृथक लखै॥21॥
तामस अनभिज्ञ तेॅ ज्ञानोॅ सें, सच्चाई सें हौ दूर रहै
हौ अल्प ज्ञान आवद्य रही, विन कारण कर्म में चूर रहै॥22॥
कर्त्तव्य भावनां कर्म करै, आवद्य रहि बिनु घृणा प्यार
जें फल-इच्छा के त्याग करै, हौ कर्म सात्वकी केरोॅ भार॥23॥
फल के इच्छां जे कर्म करै, लै अहंकार के चाखी रस
धरि अथक परिश्रम कर्म करै, हौ कर्म रहै खाली राजस॥24॥
जे नासमझी औॅ मोह साथ, कोय कर्मो के अनुबन्ध करै
हिंसा औॅ कष्ट अन्योॅ केॅ दै, हौ तामस श्रेणी कर्म करै॥25॥
जे मुक्त संग अभिमान रहित, धृति धारि उमंग समन्वित छै
जे सिद्ध-असिद्ध में निर्विकार, हौ कर्त्ता उत्तम सात्विक छै॥26॥
जे कर्म फलोॅ में पड़ी, भोग हिंसा लोभोॅ में जस के तस
हर्षोॅ शोकोॅ से ग्रसित, अशुद्धोॅ के कर्त्ता छै हौ राजस॥27॥
स्तब्ध, अयुक्त भौतिकवादी, जे मुर्खे ठगै के काम करै
आलसी विषादी कर्त्ता ही, तामस बेदें नें नाम धरै॥28॥
बुद्धि औॅ धृति सें अलग-अलग, त्रिगुणोॅ से केकरोॅ की छै मेल?
ओकरा तोहें विस्तार सुन्हौ! हे वीर धनंजय! कान खोल॥29॥
प्रवृति-निवृति औॅ कर्म-अकर्म, भय निभर्य जें बेगछावै पार्थ!
बन्धन, मोक्षोॅ केॅ सात्वकी हीं, ठिक्कोॅ सें जानै एकरोॅ अर्थ॥30॥
जें धर्म अधर्म केॅ भेद रहित, कार्या-कार्यो के ज्ञानहीन
हौ अधकचरोॅ समझैय्या ही, राजसी कहावै मतिहीन॥31॥
जें अपधर्मोॅ केॅ धर्म बुझै, आरो धर्मोॅ केॅ ही अधर्म कहै
जे मोह तमोॅ सें आवृत छै, हे पार्थ! तामसी वही रहै॥32॥
हे पार्थ! धृति जें धरी करी, मन, इन्द्रिय, प्राण केॅ वस में करै
जे योग साधनां दत्त चित्त, हौ सात्विक नर के गुण में रहै॥33॥
हे अर्जुन! फलोॅ के चाहत में, जें धर्म कार्य निबटाबै छै
जेकरोॅ नीयत छै अर्थ लिप्त, हौ नर राजस कहलावै छै॥34॥
जे नर केॅ सपना, भय विषाद, शोकोॅ मद-मोह, सुनिश्चित छै
हौ निर्बुद्धि, बन्धन में रही, लैकेॅ तामस केॅ ही चित छै॥35॥
हे भरतर्षभ! आबेॅ फेनु सुनोॅ, सुखोॅ के त्रिविध प्रकारोॅ के
जेकरा अभ्यासोॅ में रमथै, दुःख भागै छै संसारोॅ के॥36॥
जेकरोॅ प्रारम्भ छै विष समान, परिणाम मगर अमृत नांखी
जें जागृत करै छै आत्मज्ञान, हौ सात्वकीं जियै छै सुख चाखी॥37॥
जें विषयेन्द्रिय सें योग धरी, पैन्हें अमृत रङ पावै छै
वादोॅ में फल-विष रङ जेकरोॅ, हौ राजस केॅ सुख लागै छै॥38॥
जेकरा आगू अनुवन्ध आत्म सुख, मोह औ निद्रा आलस के
हौ अन्ध आत्मज्ञानी प्राणी, सुख-द्वार कहावै तामस के॥39॥
यै पृथ्वी में या अन्य लोक में, केखर्हौ में नैं हौ बल छै
जेॅ त्रिगुणोॅ फेरा सें मुक्तै, एकरोॅ फेरां सभ कायल छै॥40॥
ब्राह्मण क्षत्रिय औॅ वैश्य शूद्र, कर्मोॅ के गुण सें पृथक-पृथक
आपनोॅ आपनोॅ प्रकृति त्रिगुणोॅ सें, सभे ग्रसित छै परंतप!॥41॥
जे शुद्ध, शान्त तपी जितेन्द्रिय, जे सहनशील औॅ इमनदार
ज्ञानी-विज्ञानी, आस्तिक, ब्राह्मण, ब्रह्म कर्म के करणहार॥42॥
जे शौर्य, तेज धृति में छै दक्ष, युद्धोॅ में अडिग ही सदा रही
जे दानभाव में अग्र पुरूष, ओकरा समझोॅ क्षत्रिय तों सही॥43॥
खेती, गो-पालन, वणिक कर्म, ही वैश्योॅ के स्वभाव छिकै
सेवा के प्रकृति ही कर्म शूद्र के, जन्म जात के भाव छिकै॥44॥
आपन्हैं-आपनीं कर्मोॅ केॅ करी, संसिद्धि लाभ मनुजें पावै
है ज्ञान, सिद्धि निज करम करी, अन्तर्यामी के गुण गावै॥45॥
सभ प्राणी के प्रकृति में बसलोॅ, ईश पूज के परम काम
जे तत प्राणी के सिद्धि लेली, स्वकर्म मनुज के कीर्तिमान॥46॥
आपने टा धर्म छै श्रेयस्कर, यद्यपि कि वै में खामी रहै
ओकरा में पाप के बात कहाँ? पर धर्मोॅ में वैमानी रहै॥47॥
हे कुन्ती पुत्र! है सहज कर्म, दोषोॅ रहला सें नहीं त्याज्य
जैसे धुइयाँ संग आग रहै, प्रारम्भ दोष रहतें नैं त्याज्य॥48॥
भौतिक कामना सें दूर रही, जे इन्द्रिय जित अशक्त बुद्धि
आपन्है कर्मोॅ में लीन रही, वै नर पावै निष्कर्म सिद्धि॥49॥
हे कुन्ती पुत्र! ब्रह्म प्राप्ति के, है बात तों हमरा सें जानोॅ
कैसें जैतै कोय परमधाम?, निष्ठापूर्वक हौ बात सुनोॅ॥50॥
जें बुद्धि-शुद्ध नियम धारै, विषयोॅ शब्दोॅ के त्याग करै
जे राग-द्वेष से परे रही केॅ, निर्जन एकान्तोॅ धारै॥51॥
अल्पाहारी, मनसा, वाचा, काया केॅ बस करी त्याग रूप
जे नित्य आरो वैराग्य धरी, होय ध्यान मग्न वै परम रूप॥52॥
जे अहंकार, बल, दर्प, काम, औॅ क्रोध परिग्रह सें छै परें
जें पार्थिव वस्तु केॅ नै लियै, वे ब्रह्मज्ञान के मार्ग धरै॥53॥
छै सोच कामना सें जे परे, आनन्द सागरोॅ में ही बहै
समता सभ प्राणी संग करै, हमरे भक्ति के कर्म चहै॥54॥
जें शुद्ध भक्ति के राह धरी, हमरा परमोॅ के लय केॅ धरै
जें हमरे शरण के ज्ञान कहै, हौ हमर्है धामोॅ में ठहरै॥55॥
यद्यपि कि हर कर्मोॅ में फंसी, जे भक्त शरण में आबै छै
हमरोॅ प्रसद वै नर केॅ छै, वें शास्वत पद अपनावै छै॥56॥
चेती केॅ सभ टा कर्मोॅ केॅ, बस, त्यागि केॅ हमरा लग आबै
बुद्धि योगोॅ के आश्रय लै, हमरोॅ चित्त हौ हरदम भावै॥57॥
सभ दुर्ग टपी चित्त आपनोॅ लै, जों ध्यान हम्हीं केॅ धरभौॅ तों
तेॅ पार उतरभौ, किन्तु अहं लै, कभी नैं हमरोॅ सुनभौ तों॥58॥
गर अहंकार के आश्रय लै, हमरा बातोॅ पेॅ नैं लडभौॅ
मित्थ्या व्यवशायोॅ में तों पड़ी, फेनू थेथर बनी, से करभौं॥59॥
तों मोंह धरी, आपन्है इच्छां, हमरोॅ शिक्षा सें नैं भागोॅ
बस, आपने ठो ही प्रकृति देखि, तों तुरंत युद्ध में ही लागोॅ॥60॥
ईश्वर स्वरूप हर प्राणी केॅ हृद-देश मध्य में राजित छै
जें यंत्र मोह बनी माया केॅ, प्राणी केॅ घुमावै नित-नित छै॥61॥
हे भारत! शरणोॅ में आवोॅ, छोड़ी हर भाव तों भ्रान्ति केॅ
मुझ परम ब्रह्म के कृपा सें ही, सास्वत थल पाबोॅ शान्ति के॥62॥
है गुह्य गुह्यतर ज्ञानोॅ केॅ, तोरा जे हम्में अभी कलिहौं
एकरा बिसरोॅ या अमल करोॅ, आबेॅ तोरे इच्छा रहलौं॥63॥
सब गुह्य वचन जे ज्ञान युक्त, घुरि-घुरि तोरा जे-जे बोलला
तोहें हमरोॅ छोॅ इष्ट मित्र, यै लेलि तोरे हित सब कहलां॥64॥
हे प्रिय! हमरा हरदम सोच्हौ, हमरोॅ बनी भक्त तों भजन करोॅ
जों सचमुच दिल सें तों मिलभौ, तोरा उद्यार के प्रण हमरोॅ॥65॥
तों सकल धर्म के त्याग करी, हमरे एक शरण केॅ वरण करोॅ
हम्में पापोॅ से निवृत करि, बस मोक्ष देभौ, तों नहीं डरोॅ॥66॥
जे गुह्य ज्ञान के पात्र नहीं, जे भक्तिहीन तपहीन मनुज
जे श्रद्धाहीन ओकरा कहला में, उचित नहीं, जेकरोॅ नै चित्त॥67॥
है परम गुह्य के व्यक्त मात्र सें, भक्ति के दैनिश्चित रोपन
जें सुनी लेतै है गुप्तोॅ केॅ अन्तिम कालोॅ में अवसि मिलन॥68॥
हमरा सें बढ़ि कोय सेवक नैं, जें भक्तोॅ के सेवकाई करै
है भौतिक जग में भक्ति ही, नर के खामी भरपाई करै॥69॥
है गुह्य धर्म के अध्ययण करि, हमरा निश्चय हीं जें भजतै
पूजन सें ज्ञान यज्ञ करथैं, हौ ज्ञानी पंक्ति में घुसतै॥70॥
अनुसूय रही श्रद्धा सें जें, हमरोॅ है गुह्य धरम सुनतै
हौ पापमुक्त शुभ लोक पहुंचि, सद्कर्म सहित हममें मिलतै॥71॥
हे पार्थ! तोहें हमरोॅ सुनल्हौ, एकाग्रचित्त करि ध्यान धरी
फेनू हे धनंजय! तों कैसें? पड़ल्हौॅ अज्ञान में मोह करी?॥72॥
अर्जुनें कहलकै-हे अच्युत! मोहो भागलै, स्मृति घुरलै
तोर्है ही कृपा सें थिर धरि केॅ, निर्विघ्न कर्म लेॅ मति फिरलै॥73॥
संजय बोललै-वासुदेव पार्थ, दू महात्मनोॅ के वर्त्तालाप
सम्बाद सुनै में अति अद्भुत, सब रोम-हर्ष भरलोॅ प्रलाप॥74॥
भगवान व्यास के कृपा सें ही, है गुह्य परम हम्हूं सुनलां
जे स्वयं कृष्ण योगेश्वर मुख सें, योग नेम के यश गुनलां॥75॥
हे राजन! याद करी ही करी, अद्भुत संवाद सुनाबौं हम
केशव अर्जुन के पुण्य, घुरि-घुरि खुशी सें बताभौं हम॥76॥
हे राजन! जखनीं याद करौं, श्री कृष्ण के अद्भुत रूपोॅ केॅ
विस्मय सें हरदम खुशी-खुशी, फिन-फिन स्वादौं वै स्वरूपोॅ केॅ॥77॥
जै ठियाँ योगेश्वर कृष्ण रहै
जै ठियाँ हौ पार्थ धनुर्धर छै
तेॅ जीत सुनिश्चित वै ठां छै
राजन! है हमरोॅ मति थिर छै॥78॥