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अनगिनत गिर चुके हैं लोग / मरीना स्विताएवा

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अनगिनत गिर चुके हैं लोग
मुँह खोले इस अतल गर्त में।
आएगा वह दिन जब मैं भी
गायब हो जाऊंगी इस धरती पर से।

निष्प्राण पड़ जाएगा वह सब-कुछ मुझ में
जो गाता रहा, जूझता रहा, तड़पता रहा।
निष्प्राण पड़ जाएगी मेरी आँखों की हरियाली
यह कोमल आवाज़ और बालों का सुनहलापन।

बची रहेगी ज़िन्दगी, बची रहेगी रोटी
अपने दिनों के भुलक्कड़पन के साथ
सब-कुछ रहेगा पूर्ववत इस तरह
गोया कभी न रहा हो मेरा अस्तित्व इस धरती पर।

बच्चों की तरह अस्थिर अपनी हर मुद्रा में
कभी-कभी कुछ हृदयविहीन
प्यार करती हुई उस क्षण को
जब अंगीठी में राख बन जाता है ईंधन।

जब होते हैं घने बीहड़ में घुड़सवार
और सुनाई देती है घंटियों की गूँज,
जीवन्त और वास्तविक मैं जैसे
रही हूँगी कभी इस स्नेहिल धरती पर।

हर तरह के बंधनों की विरोधी मैं
आज अपने-पराए तुम सभी से
मांग करती हूँ आस्था की,
प्रार्थना करती हूँ प्रेम की।

प्रार्थना करती हूँ दिन-रात, लिख कर, बोल कर
हाँ की सच्चाई और नहीं की सच्चाई के लिए,
इसलिए कि इतनी अक्सर, इतनी अधिक
बीस वर्ष की उम्र में ही दुखी रहने लगी हूँ मैं।

इसलिए कि मेरे लिए एकमात्र विकल्प
क्षमा मांगना रह गया है सब अपमानों के लिए,
अपनी असीम निर्बाध मृदुता और
अपने स्वाभिमानी रूप के लिए।

एक के बाद एक हो रही घटनाओं की रफ़्तार के लिए...
सुनो, प्यार करना मुझे इसलिए भी
कि मर जाना है एक दिन
मुझे भी !

रचनाकाल : 8 दिसम्बर 1913

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह