अनुभाव / रस प्रबोध / रसलीन
अनुभाव
व्यभिचारी-वर्णन
कहि अनुभावन हाव हूँ बरनै तेहि सँग आनि।
अब बिबिचारिन को कहौं सौं द्वै बिधि पहिचानि॥796॥
तिन द्वै भेदन माँहि जे तन विविचारी आहि।
लहि अनुभाव प्रसंग को पहिले बरनौं ताहि॥797॥
तिनही विविचारीनि को सातुक कहिये नाम।
कहि लच्छन तिनके कहो उदाहरन अभिराम॥798॥
तन-व्यभिचारी
सात्विक-लक्षण
सुख दुख आदि जु भावना हृदै माँहि कछु होइ।
सो बिन वस्तुन परगटै सातुक कहियै सोइ॥799॥
सत्य सबद प्रानी कह्यौ जीवत देह निहारि।
ताको जो कछु धरम है सो सातुक निरधारि॥800॥
यै प्रगटत थिर भाव को अरु ये हैं तन भाइ।
या तें कवि इनको गुनौ अनुभावन मैं ल्याइ॥801॥
भेद सिंगारनु भाव अरु सातुक मैं यह जानि।
वै प्रगटत रति भाष ये सब थाइन को आनि॥802॥
दूजो यह अनुभाव अरु सातुक भेद उदोत।
बै बिनु बस ते होत हैं ये निजु बस ते होत॥803॥
सोई सातुक आठ हैं यह आनत बस कोइ।
तिनको बरनन करत हौं अंथनि को मति जोइ॥804॥
सातौं सातुक नाम ते लच्छन प्रगट लखाइ।
आठों लच्छन प्रलय को अब दैहों समुझाइ॥805॥
स्वेद-उदाहरण
घन आवत जे आदि ही चलत स्वेद तन आइ।
यौं आवत यह कान्ह के स्रम जल रही अन्हाइ॥806॥
बाम लखत तन स्याम को कढ़îौ स्वेद यौं आइ।
ज्यौं तरपति ही बीजुरी बरखत मेघ बनाइ॥807॥
हरि के देखत ही कहा थकित भयो तुव गात।
रई रही लै हाथ मैं दही मथ्यो नहि जात॥808॥
पाग सजत हरि दृग परी जूरो बाँधत बाम।
रहे पेच कर मैं परे और पेच मैं स्याम॥809॥
रोमांच-उदाहरण
हौं तोही पै आनि यह लखी अपूरब बात।
जित मारत पिय फूल तित होत कटीले गात॥810॥
कान्ह भयो रोमांच यह जनि अपने मन चेत।
रोम रोम ते तन उठ्यौ तव आदर के हेत॥811॥
सुरभंग-उदाहरण
छकित करयौ मों प्रान तुव ये नहिं नहिं ठहराइ।
मानों निकसत है सुरा सीसी मुख ते आइ॥812॥
अबहीं तुम गावत हुते भई कौन यह बात।
सुरत रंग के लेत कत सुरत भंग ह्वै जात॥813॥
कम्प-उदाहरण
लख्यौ न कहुँ घनस्याम अरु बोल सुन्यौ नहिं कान।
कहाँ लगी तूँ बेल सी बात चलत थहिरान॥814॥
तन धन चंदन बदन ससि दुति सीतलता पाइ।
आजु अंग ब्रजराज के कंप भयौ है आइ॥815॥
विवर्ण-उदाहरण
कारो पीरो पट धरे बिहरत धन मन माँहि।
याते निरमल गात मैं कारी पीरी छाँहि॥816॥
पदमिनि लखि रस लैनि हित अति अनंग सरसाइ।
मधुप रीति हरि बदन पै भई पीतता आइ॥817॥
आँसू-उदाहरण
पिय लखि नहि तिय चखन मैं सुख असुँवा ठहिराइ।
आपुन भे सीतल हियौ सीतल कंत बनाइ॥818॥
परत बाल मुँख छाँह के दृगन कूप मैं आइ।
हरि के सुख असुँवाँ चलै पारद ह्वै उफनाइ॥819॥
होत हरख दुख आदि तैं नष्ट चेष्टा ग्यान।
सुध न हिताहित की रहै खोइ प्रलाप पहिचान॥820॥
प्रलाप-उदाहरण
तब तें सुधि न सरीर की परी बाल बेहाल।
जब तें आए हैं लपटि कारे लौं डसि लाल॥821॥
जरत नहीं कछु आगि तें जल तें नहिं सियरात।
राधे देखत ही भई यह गति हरि के गात॥822॥
आठों सात्विकों का दोहों में उदाहरण
पिय तक छकि अधबर्न कहि पुलक स्वेद ते छाइ।
ह्वै बिबरन कंपत गिरे तिय असुँवा ठहराइ॥823॥